पैतृक सम्पत्ति में बेटी का हक: सर्वोच्च न्यायालय
शीतला सिंह
सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने हिन्दू उत्तराधिकार कानून की नये सिरे से व्याख्या करके फैसला दिया है कि पैतृक सम्पत्ति में बेटी का हक अनिवार्य है। इससे पहले दो न्यायाधीशों की पीठ ने प्रकाश बनाम फूलवती केस में कहा था कि संशोधित कानून की धारा-6 पूर्व से लागू नहीं होगी। अब विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा केस के ताजा फैसले में तीन सदस्यीय पीठ ने उससे असहमति जताते हुए उसे पिता के जीवित होने या न होने से जोडऩे से भी मनाकर दिया है। यह भी कहा है कि पैतृक सम्पत्ति के मौखिक बंटवारे की दलीलें स्वीकार नहीं की जायेंगी और कानून की धारा-6 (5) के अनुसार उसका बंटवारा रजिस्टर्ड डीड से या फि र कोर्ट की डिक्री से होना चाहिए, ताकि बंटवारे में अनुचित तरीके अपनाकर बेटियों को हक से वंचित न किया सके। तीन सदस्यीय पीठ के अनुसार बेटी का इस संबंधी हक जन्मसिद्ध है और उसे इससे किसी भी बहाने वंचित नहीं किया जा सकता। चूंकि अब अदालतों में लम्बित इस सम्बन्धी विभिन्न मामलों में टॉप कोर्ट की यही व्यवस्था लागू होगी, इसलिए निर्देशित किया गया है कि सम्बन्धित न्यायालय उनमें शीघ्र निर्णय करके व्यवधानों से मुक्त करें। दरअसल, यह मामला 2016 व 2018 के दो विरोधाभासी फैसलों के बाद कानूनी व्यवस्था तय करने के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया था, जिसमें सवाल उठाया गया था कि संशोधित कानून कब से लागू होगा और क्या 9 सितम्बर, 2005 यानी संशोधन से पहले पैदा हुई बेटी भी इसके तहत पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार का दावा कर सकती है? प्रसंगवश, हिन्दू मान्यता के अनुसार बेटी को परिवार का हिस्सा माना ही नहीं जाता। कहा जाता है कि वह पराई होती है और विवाह के बाद ही उसके घर व अधिकार की व्यवस्था आरम्भ होती है
। इस विवाह व्यवस्था को लागू हुए लगभग 6000 वर्ष हुए हैं और इससे पहले की मातृसत्तात्मक व्यवस्था में एक साथ रहने के लिए विवाह व परिवार अनिवार्य शर्तें नहीं थीं। लेकिन अब हिन्दू मान्यताओं में विवाह की अनिवार्यता भी शामिल है, जिसके अनुसार बेटी का परिवार उसके विवाह के बाद ही अस्तित्व में आता है। स्थायी और अस्थायी सम्पत्तियों में स्थायी सम्पत्ति आमतौर पर पैतृक अधिकार द्वारा अर्जित की जाती है, जिसके बंटवारे में बेटियों को पराया माना जाता रहा है। जहां तक अस्थायी सम्पत्ति का प्रश्न है, नकदी, जेवर या अन्य सम्पत्तियों के रूप में उसका बंटवारा तो आसान है, लेकिन विवाहित बेटी दूसरे घर को अपना घर मानकर जायेगी और पैतृक सम्पत्ति के नाम पर पिता की भूमि भी पायेगी, तो एक तो भूमि का टुकड़ों में वितरण बढ़ेगा और दूसरे, वह उसकी व्यवस्था से भी जुड़ जायेगी। आमतौर पर बेटियों के पिता के घर और ससुराल में लम्बी दूरी होती है। ऐसे पिता से मिली भूमि के प्रबन्धन का उसके पास एक ही रास्ता बचेगा कि वह उसे बेच ले, जिस पर कोई पाबन्दी नहीं है। लेकिन उसके हिस्से की भूमि पुराने रूप में बची रही, तो बेटी का मायके व ससुराल का द्वन्द्व बढ़ता ही जायेगा। इस रूप में यह सवाल लिंगभेद से उत्पन्न समस्याओं व कठिनाइयों से भी जुड़ जाता है। क्योंकि बेटे तो पैतृक सम्पत्ति में अपना हिस्सा लेकर बाप से अलग रह सकते या उनसे मुक्ति पा सकते हैं, लेकिन बेटी का घर तो उसके हिस्सा लेने के बाद भी उसके पति का घर ही रहेगा। कहा जा रहा है कि इससे उसके आर्थिक आधार में मजबूती आयेगी और भारतीय समाज की महिलाओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक मानने की परम्परा बदलेगी। विवाह के बाद बेटी नैहर की पैतृक सम्पत्ति लायेगी तो उससे उसका नया परिवार भी लाभान्वित होगा, क्योंकि वह सम्पत्ति उसकी संयुक्त सम्पत्ति का हिस्सा बन जायेगी। लेकिन बेटी और उसकी सम्पत्ति को परिवार से पृथक माना गया तो परिवार में संयोजन के बजाय वियोजन की प्रवृत्तियों का विस्तार होगा।
हम जानते हैं कि बेटी हो या बेटा, दोनों का जन्म एक ही प्रक्रिया के अनुसार होता है। लेकिन हमारे देश और समाज में अभी बेटी को समाज व परिवार में बेटों जैसे निर्णायक अधिकार पूरी तरह से नहीं मिल पाये हैं। ऐसे में नैतिक दृष्टि से यह उचित ही है कि बेटी को अधिकारसम्पन्न किया जाये क्योंकि वह सृष्टि के मूल कारणों में है और उसके बगैर यह संसार ही नहीं चल पायेगा। मातृसत्तात्मक और पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं में मूल अन्तर यही है कि इनमें से एक भेदभावकारी है और दूसरी परिवार को छोटा के बजाय बड़ा बनाती रही है। इस बड़े परिवार की स्वतंत्रताएं पुरुषवर्चस्व वाले समाज जैसी नहीं होतीं। सृष्टि के विकासक्रम में अब स्वतंत्र जीवन और बिना शादी-विवाह के सहजीवन तक को विधिक व संवैधानिक स्वीकृतियां मिल गयी हैं, लेकिन मूल प्रश्न अब भी बरकरार है कि महिलाओं की समान स्थिति के लिए वे कौन से मूल आधार हैं, जिनसे उन्हें वंचित नहीं किया जाना चाहिए? पितृसत्तात्मक समाज में पैतृक सम्पत्ति में बेटी के अधिकार वाली व्यवस्था को अनुचित नहीं कहा जा सकता, लेकिन सवाल है कि इससे समाज के वर्तमान स्वरूप में जो परिवर्तन होगा, उसको समाज व युग के अनुकूल व लाभकारी कैसे बनाया जायेगा? सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून की जो व्याख्या की है, निश्चित ही वह कल्याणकारी है। इसके साथ सामाजिक न्याय भी जुड़ा हुआ है और यह लैंगिक भेदभाव का निषेध भी करती है। कुछ पिछड़ी मानसिकता वाले इसका विरोध कर सकते हैं, लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि युगों के साथ व्यवस्थाएं भी बदलती रहती हैं। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि प्राचीन व्यवस्थाएं आज के युग में पूरी तरह लाभकारी हो सकेंगी। क्योंकि हम समाज को घुमाकर पीछे की ओर ले जाने में समर्थ नहीं हैं और नई समाज व्यवस्था मानवीय स्वीकार्यता पर ही आधारित होगीे। उसमें छोटी-मोटी कमियां और गलतियां हों भी तो उनकी आड़ में लैंगिक भेदभाव की वकालत नहीं की जा सकेगी। महिलाओं को स्वीकार्य और बराबर ही मानना पड़ेगा, हीन नहीं। इसीलिए तो हमने उन्हें हीन मानने वाली तमाम पुरानी मान्यताओं को त्यागकर समानता के संवैधानिक अधिकार से लैस किया है। पुराने युग में उनको युद्ध के क्षेत्रों से परे करार दिया जाता था, लेकिन अब सैन्य व्यवस्था में परिवर्तन करके पुरुष उच्चताबोध और अधिकारिता के मानकों के विपरीत महिलाओं को भी शामिल किया गया है। इतना ही नहीं, उन्हें सेना के अधिकारियों की बराबरी में लाया गया है। अब हम समाज का कोई अंग ऐसा नहीं छोडऩा चाहते, जिसमें महिलाओं को द्वितीय श्रेणी का, अक्षम और हीन मानकर अलग रखा जाये। इसलिए कि हम जानते हैं कि ऐसा करना लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले संवैधानिक समाज की कल्पनाओं के अनुकूल नहीं होगा, क्योंकि हमें समाज को संयोजित करना है, वियोजित नहीं। पुरातन पद्धति तत्कालीन समाज व्यवस्था की आवश्यकता रही होगी, लेकिन वह आज के लोकतांत्रिक युग के अनुरूप नहीं रह गई है।