किसानों से दूर हुई दिल्ली, कीलों से किलेबंदी?

सरकार और किसान संगठनों को खुले मन से आकर इस मामले को हल करना चाहिए। गणतंत्र दिवस के मौके पर दिल्ली में हुई हिंसा के बाद तकरीबन यह तय माना जा रहा था कि किसान आंदोलन समय से पहले खत्म हो जाएगा। तिरंगे के अपमान से पूरा देश उबाल में था। किसान संगठनों ने भी इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया था लेकिन राकेश टिकैत की अगुवाई में एक बार पुनः आंदोलन और मजबूती से खड़ा हुआ। गाजीपुर सीमा पर पुनः किसानों का जमावड़ा शुरू हो गया है। लेकिन कानून व्यवस्था की आड़ में दिल्ली पुलिस ने सीमा की कंटीलें तारों, सीमेंट की बाड़ और नुकीले कीलों से घेरा बंदी कर दी है। पुलिस की इस नीति की तीखी आलोचना भी हो रहीं है। सुरक्षा के नाम पर लाखों रुपए अनावश्यक रूप से खर्च किए गए। पुलिस ने किसानों को चारों तरफ से मजबूत घेरा बनाकर घेर लिया है। वह किसानों तक दूसरे लोगों को पहुंचना नहीं देना चाहती है।
सरकार किसान आंदोलन को एकदम खत्म करने के लिए हर कोशिश कर रही है। पानी की आपूर्ति बंद कर दी गई है। शौचालय की सुविधा भी खत्म कर दी गई है। बिजली काट दी गई है जबकि अन्नदाता कड़ाके की ठंड में खुले आसमान तले रात गुजार रहा है। किसानों और सरकार के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। दिल्ली की सीमा से सटे गाजीपुर, सिंधू और टिकरी बॉर्डर पर लोहे की मोटी-मोटी किलें लगा दी गई है। छह से आठ लेयर की बाड़ लगाईं गई है। दिल्ली को सुरक्षित रखने के नाम पर दिल्ली पुलिस ने इस तरह का इंतजाम किया जिसकी उम्मीद नहीं की जा सकती।


सम्भवतः आजाद भारत में इस तरह की किले बंदी किसी आंदोलन के लिए नहीं की गई। क्या किसान देश का नागरिक नहीं है। क्या वह अपनी बात सरकार तक नहीं पहुंचा सकता है। किसान के लिए इस तरह की किलेबंदी क्यों ? पुलिस का यह कदम पूरी तरह अलोकतांत्रिक है। लोकतान्त्रिक देश में इस तरह की कार्रवाई उचित नहीं। जवान और किसानों के बीच टकराव की स्थिति ठीक नहीं है।
आंदोलन लोकतांत्रिक देश में सभी का अधिकार है। हम किसी को प्रदर्शन, आंदोलन और धरने से नहीं रोक सकते हैं। दिल्ली पुलिस की तरफ से उठाए गए सुरक्षा के इंतजाम से साफ दिख रहा है कि किसानों के लिए अब दिल्ली दूर है। सरकार और प्रधानमंत्री भले कह रहे हों कि यह दूरी सिर्फ एक कॉल की है, लेकिन अब लगता नहीं कि किसानों और सरकार के बीच कोई बात बन पाएगी क्योंकि अभी तक किसानों और सरकार के बीच दस चक्र की वार्ता के बाद भी बात नहीं बन पायी है।
सरकार और किसान दोनों अपनी जिद पर अड़े हैं। किसान तीनों कानूनों को खत्म करना चाहते हैं जबकि सरकार किसी भी कानून को खत्म नहीं करना चाहती। कुछ बातों पर सहमति बनी थीं लेकिन अब समाधान का रास्ता दिखता नजर नहीं आता है। अभी तक किसान आंदोलन राजनीति से पूरी तरह दूर था, लेकिन गाजीपुर बॉर्डर पर जिस तरह के हालात बने हैं उससे यह साफ जाहिर हो रहा है कि पूरा विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ लामबंद हो रहा है।
राष्ट्रीय लोकदल, कांग्रेस, आप, समाजवादी पार्टी के साथ अब शिवसेना भी कूद पड़ी है। किसान आंदोलन पर राजनीति भी हावी होती दिखती है। क्योंकि सामने पश्चिम बंगाल के साथ कई राज्यों के चुनाव हैं। उत्तर प्रदेश में भी साल भर बाद चुनावी गरमाहट शुरू हो जाएगी। विपक्ष किसान आंदोलन की आड़ में अपनी खोई हुई जमींन तलाशने में जुटा है।
गाजीपुर बार्डर पर राकेश टिकैत से जयंत चौधरी, आम आदमी पार्टी के मनीष सिसोदिया, कांग्रेस के अजय कुमार लल्लू और शिवसेना के संजय राउत के साथ दूसरे दलों के राजनेता मिलकर किसान आंदोलन को राजनीतिक रंग दे दिया है। टिकैत की आंखों से टपके आंसू और उनकी भावनात्मक अपील ने खासा असर किया। हासिए पर जाता किसान आंदोलन अपनी रौ में आ गया है। किसान नेता राकेश टिकैत एक नई भूमिका में उभरे हैं।


सरकार को किसान आंदोलन के मुद्दे पर नरम रुख अपनाना चाहिए। देश की सीमा से सटे बॉर्डर पर भी इतनी सुरक्षा नहीं है जितना कि गाजीपुर में दिल्ली पुलिस ने किया है। पाकिस्तान, चीन, नेपाल और बांग्लादेश से सटी सीमा पर भी इतने पुख्ता इंतजाम नहीं है। इसमें कुछ देशों को छोड़ सभी के साथ हमारी प्राकृतिक सीमा है।फिर किसानों के साथ इतनी सख्ती क्यों ?
सरकार तीनों कानूनों पर डेढ़ साल के लिए प्रतिबंध लगा सकती है तो उसे खत्म क्यों नहीं कर सकती। सरकार अपने स्थान पर सही भी हो सकती है लेकिन किसानों को वह समझाने में नाकाम रहीं है। सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह राजनीति का विषय नहीं है। पंजाब सरकार दिल्ली हिंसा के मुकदमों को लड़ने के लिए किसानों को वकील भी मुहैया कराएगी। राज्यसभा में भी किसान आंदोलन को लेकर बड़ा हंगामा हुआ। पत्रकारों पर भी मुकदमे लादे जा रहे हैं जो पूरी तरह अलोकतांत्रिक है।
सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही किसान शामिल हैं जबकि देश के अधिकांश हिस्सों से किसानों ने तीनों के कृषि बिल का समर्थन किया है। यह सरकार की दलील हो सकती है, लेकिन ऐसी बात नहीं है। क्योंकि पंजाब और हरियाणा के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान इसका अधिक लाभ उठाते हैं फिर आंदोलन कौन करेगा।
किसान संगठनों ने 6 फरवरी को देशव्यापी आंदोलन करने का निर्णय लिया है। टिकैत आंदोलन को धार देने जिंद की महापंचायत में जा रहें हैं जहाँ किसान आंदोलन को और मजबूत बनाने के लिए विचार-विमर्श होगा।
सरकार किसी भी तरह से किसानों के आगे झुकना नहीं चाहती है जबकि वह बातचीत के दरवाजे खुला भी रखना चाहती है, जबकि किसान तीनों कृषि कानून का खात्मा चाहते हैं।
किसान आंदोलन से किसको सियासी नफा और किसे नुकसान होगा, यह अलग विश्लेषण का विषय है, लेकिन सरकार और किसानों को इस पर आम सहमति बनानी होगी। सत्ता के बल पर किसानों की माँग को दबाया नहीं जा सकता है। अभी तक किसान आंदोलन राजनीति से दूर रहा लेकिन अब यह राजनीतिक रंग लेता दिख रहा है। फिलहाल किसानों और सरकार के बीच बातचीत जारी रहनी चाहिए। किसानों के लोकतांत्रिक अधिकारों की हरहाल में रक्षा होनी चाहिए। सरकार को इस मसले पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। देश के अन्नदाता की अनदेखी नहीं होनी चाहिए।

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