तीन रूपये लेकर मायानगरी मुंबई में अपने सपनों को साकार करने पहुंचे थे महबूब खान
..पुण्यतिथि 28 मई के अवसर पर ..
मुंबई। हिन्दी सिनेमा जगत के युगपुरूष महबूब खान बतौर अभिनेता अपने सपने को साकार करने के लिये जेब में मात्र तीन रुपये लेकर दोबारा मायानगरी मुंबई पहुंच गये थे। 09 सितम्बर 1907 को गुजरात के बिलिमोरा में पुलिस कॉन्स्टेबल के घर जन्में महबूब खान को बचपन से ही फिल्म इंडस्ट्री की दुनिया बेहद पसंद थी। वह बचपन से ही अभिनेता बनना चाहते थे लेकिन उनके पिता इसके खिलाफ थे। अपने सपनो को पूरा करने के लिए महबूब खान 16 साल की उम्र में ही मुंबई भाग गए थे लेकिन वहां उन्हें सफलता नहीं मिली, जिसकी जानकारी मिलने के बाद उनके पिता ने उन्हें घर बुलवाकर उनकी शादी रचा दी, जिससे वह दोबारा घर से नहीं भाग सके। इस बीच महबूब खान मुंबई जाने का फिर से ख्याल आया और जेब में पड़े तीन रुपये लेकर वह मुंबई निकल पड़े।
भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा के लिये महबूब खान का अभिनेता के रूप में चयन किया गया था लेकिन फिल्म निर्माण के समय आर्देशिर ईरानी ने महसूस किया कि फिल्म की सफलता के लिए नये कलाकार को मौका देने के बजाय किसी स्थापित अभिनेता को यह भूमिका देना सही रहेगा। बाद में उन्होंने महबूब खान की जगह मास्टर विट्ठल को इस फिल्म में काम करने का अवसर दिया। महबूब खान ने अपने सिने कैरियर की शुरूआत 1927 में प्रदर्शित फिल्म .अलीबाबा एंड फोर्टी थीफस. से अभिनेता के रूप में की। इस फिल्म में उन्होंने चालीस चोरों में से एक चोर की भूमिका निभायी थी।
इसके बाद महबूब खान सागर मूवीटोन से जुड़ गये और कई फिल्मों में सहायक अभिनेता के रूप में काम किया। वर्ष 1935 में उन्हें .जजमेंट आफ अल्लाह. फिल्म के निर्देशन का मौका मिला। अरब और रोम के बीच युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म दर्शको को काफी पसंद आई। महबूब खान को 1936 में .मनमोहन. और 1937 में .जागीरदार. फिल्म को निर्देशित करने का मौका मिला लेकिन ये दोनो फिल्में टिकट खिड़की पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकीं। वर्ष 1937 में उनकी .एक ही रास्ता. प्रदर्शित हुयी। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म दर्शको को काफी पसंद आई।इस फिल्म की सफलता के बाद वह निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गये।
वर्ष 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण फिल्म इंडस्ट्री को काफी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा। इस दौरान सागर मूवीटोन की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गयी और वह बंद हो गयी। इसके बाद महबूब खान अपने सहयोगियो के साथ नेशनल स्टूडियों चले गये।जहां उन्होंने औरत,बहन और रोटी जैसी फिल्मों का निर्देशन किया।कुछ समय तक नेशनल स्टूडियों में काम करने के बाद महबूब खान को महसूस हुआ कि उनकी विचारधारा और कंपनी की विचारधारा में भिन्नता है। इसे देखते हुये उन्होंने नेशनल स्टूडियों को अलविदा कह दिया और महबूब खान प्रोडक्शन लिमिटेड की स्थापना की. जिसके बैनर तले उन्होंने नजमा, तकदीर,और हूमायूं जैसी फिल्मों का निर्माण किया।
वर्ष 1946 मे प्रदर्शित फिल्म .अनमोल घड़ी. महबूब खान की सुपरहिट फिल्मों में शुमार की जाती है। इस फिल्म से जुड़ा रोचक तथ्य यह है कि महबूब खान फिल्म को संगीतमय बनाना चाहते थे।इसी उद्देश्य से उन्होंने नूरजहां. सुरैय्या और अभिनेता सुरेन्द्र का चयन किया जो अभिनय के साथ ही गीत गाने में भी सक्षम थे। फिल्म की सफलता से महबूब खान का निर्णय सही साबित हुआ।नौशाद के संगीत से सजे .आवाज दे कहां है. .आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे. और जवां है मोहब्बत. जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय है।वर्ष 1949 में प्रदर्शित फिल्म .अंदाज. महबूब खान की महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल है। प्रेम त्रिकोण पर बनी दिलीप कुमार. राज कपूर और नर्गिस अभिनीत यह फिल्म क्लासिक फिल्मों में शुमार की जाती है। इस फिल्म में दिलीप कुमार और राजकपूर ने पहली और आखिरी बार एक साथ काम किया था।
वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म .आन. महबूब खान की एक और महत्वपूर्ण फिल्म साबित हुयी। इस फिल्म की खास बात यह थी कि यह हिंदुस्तान में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म थी और इसे काफी खर्च के साथ वृहत पैमाने पर बनाया गया था। दिलीप कुमार. प्रेमनाथ और नादिरा की मुख्य भूमिका वाली इस फिल्म से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी है कि भारत में बनी यह पहली फिल्म थी जो पूरे विश्व में एक साथ प्रदर्शित की गयी।.आन. की सफलता के बाद महबूब खान ने .अमर. फिल्म का निर्माण किया। बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय बनी इस फिल्म में दिलीप कुमार .मधुबाला और निम्मी ने मुख्य निभाई। हालंकि फिल्म व्यावसायिक तौर पर सफल नहीं हुयी लेकिन महबूब खान इसे अपनी एक महत्वपूर्ण फिल्म मानते थे। वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म .मदर इंडिया. महबूब खान की सर्वाधिक सफल फिल्मों में शुमार की जाती है।महबूब खान ने मदर इंडिया से पहले भी इसी कहानी पर 1939 मे औरत फिल्म का निर्माण किया था और वह इस फिल्म का नाम भी औरत ही रखना चाहते थे लेकिन नरगिस के कहने पर उन्होंने इसका .मदर इंडिया. जैसा विशुद्व अंग्रेजी नाम रखा। फिल्म की सफलता से उनका यह सुझाव सही साबित हुआ।
वर्ष 1962 में प्रदर्शित फिल्म .सन ऑफ इंडिया. महबूब खान के सिने करियर की अंतिम फिल्म साबित हुयी। बड़े बजट से बनी यह फिल्म टिकट खिड़की पर बुरी तरह नकार दी गयी। हांलाकि नौशाद के संगीतबद्ध फिल्म के गीत .नन्हा मुन्ना राही हूं. और तुझे दिल ढूंढ रहा है. श्रोताओं के बीच आज भी तन्मयता के साथ सुने जाते है।अपने जीवन के आखिरी दौर में महबूब खान 16वीं शताब्दी की कवयित्री हब्बा खातून की जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन उनका यह ख्वाब अधूरा ही रह गया। अपनी फिल्मों से दर्शको के बीच खास पहचान बनाने वाले महान फिल्मकार 28 मई 1964 को इस दुनिया से रूखसत हो गये।